खालसा की रूह और आज़ाद भारत का उदय
- kartikbehlofficial
- 14 अग॰
- 3 मिनट पठन
धुंधली रोशनी में फंदा हल्के-हल्के झूल रहा था।
फाँसी के तख़्त पर एक सिख क्रांतिकारी खड़ा था—पगड़ी सलीके से बंधी, नज़रें जल्लाद पर नहीं, बल्कि जेल की दीवारों के पार किसी दूर क्षितिज पर टिकी हुईं। जेलर ने उसे दया की भीख माँगने का आख़िरी मौक़ा दिया। उसने हल्की-सी मुस्कान के साथ कहा—
“ਮੌਤ ਨੂੰ ਡਰ ਕਿਉਂ ਹੋਵੇ? ਅਸੀਂ ਤੇ ਸ਼ਹੀਦਾਂ ਦਾ ਵੰਸ਼ ਹਾਂ।”
(मौत से डर क्यों हो? हम तो शहीदों के वंशज हैं।)
लीवर दबा। शरीर गिरा। आत्मा उठ गई।
भारत की आज़ादी किसी ने थाली में रखकर नहीं दी—उसे साम्राज्य की लोहे की पकड़ से छीना गया, ख़ून, दृढ़ता और अडिग इच्छा शक्ति के बल पर।
और उस लम्बे, कठोर संघर्ष में एक ऐसा समुदाय था, जिसके क़दम हमेशा मोर्चे पर मिले, जिसकी दृढ़ता सदियों के बलिदान की अग्नि में गढ़ी गई—सिख समुदाय।
सिख भावना ब्रिटिशों के आगमन से नहीं जागी थी। यह पहले ही मुग़लों की तलवार से टकराकर तप चुकी थी, गुरु अर्जन देव और गुरु तेग बहादुर के शहादत से पवित्र हुई थी, और गुरु गोबिंद सिंह की लड़ाइयों में धारदार हो चुकी थी। सिखों के लिए प्रतिरोध विद्रोह का कार्य नहीं था—यह आस्था का कार्य था। अत्याचार के आगे झुकना, उस साँस से विश्वासघात करना था जो स्वयं भगवान ने दी है।
इसलिए जब भारत की स्वतंत्रता की पुकार उठी, तो सिखों का उत्तर नापतौल कर नहीं, बल्कि सम्पूर्ण समर्पण के साथ आया। किसानों ने खेत छोड़ दिए, सिपाहियों ने पेंशन की सुविधा त्याग दी, विदेशों में मज़दूरों ने अपनी कमाई घर नहीं, बल्कि क्रांतियों के लिए भेजी। ग़दर पार्टी के सदस्य—जिनमें से अधिकांश पंजाब के गाँवों के पगड़ीधारी पुरुष थे—समुद्र पार लौटे, यह जानते हुए कि ब्रिटिश फाँसीघर उनका इंतज़ार कर रहे हैं। वे फिर भी आए।
अप्रैल 1919 में, जब जलियांवाला बाग़ लाल हो गया, तो केवल अमृतसर की धरती ने ही वह रक्त नहीं पिया—एक पूरे समुदाय का अंतःकरण झुलस गया। उसके बाद का अकाली आंदोलन केवल गुरुद्वारों के नियंत्रण का प्रश्न नहीं था। यह साबित करने का संकल्प था कि कोई भी सिंहासन—चाहे दिल्ली में हो या लंदन में—खालसा की आत्मा को आदेश नहीं दे सकता। लोग पुलिस की लाठियों के सामने बिना हाथ उठाए खड़े हुए, कमज़ोरी से नहीं, बल्कि इसलिए कि उनके गुरुओं ने सिखाया था—नैतिक साहस साम्राज्यों को तलवार से ज़्यादा तेज़ी से तोड़ता है।
आंकड़े आज भी ईमानदार पाठक को चौंका देते हैं: सिख भारत की आबादी का मुश्किल से 2% थे, फिर भी उन्होंने फाँसी के तख़्त, जेलें और शहीदों की सूचियाँ अपने अनुपात से कहीं अधिक भरीं। परिवारों ने एक नहीं, कई बेटों को फाँसी के लिए भेजा। माताएँ अपने बच्चों के केश आख़िरी बार धोतीं और कहतीं—जाओ, पंथ का नाम रोशन करो। भारत को आज़ाद करो।
सिखों के लिए स्वतंत्रता केवल डंडे पर फहराता तिरंगा नहीं थी। यह हर व्यक्ति—हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई—के लिए बिना डर जीने, बिना बेड़ियों के बोलने, बिना अनुमति के ईश्वर की पूजा करने का पवित्र अधिकार था। उनका संघर्ष केवल अपने लिए नहीं था—वह था ‘सर्बत दा भला’, अर्थात सबका कल्याण।
जब 1947 की मध्यरात्रि में भारत ने एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अपनी पहली साँस ली, तो जो ध्वनि गूंजनी चाहिए थी, वह थी असंख्य गुरुद्वारों से उठती अरदास की, उन लोगों की याद में जिन्होंने सब कुछ दे दिया और बदले में कुछ नहीं माँगा। खालसा की भावना ने केवल स्वतंत्रता संग्राम में भाग नहीं लिया—उसने उसकी धड़कन को परिभाषित किया।
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